कलम लाइव पत्रिका

ईमेल:- kalamlivepatrika@gmail.com

Sponsor

मुसाफिर musafir

मुसाफिर

मैं एक मुसाफिर हूँ
अंधेरे से गुजरते हुए
कितना कुछ देखा मैंने
एक बिखरती रात, बिरान सी रात
एक  उच्चे पहाड़ पर जब पहुंचा
तब दिखाई दी एक रोशनी
एक रुकी हुई तन्हाई
सिमट लिया है इस संध्या को
कितने घूमते घूमते चलते चलते
कितने नदी, समुद्र को पीछे रक कर आया
इसके पीछे था एक उदासी, आँसू
और तुम नहीं मिले
एक तारों की रात रोशनी के साथ
इट के दीवार पर कितने छुपे हुए रंग
या कोई दाग खून के
इस अंधकार में एक बात है
मैं फिर भी चलता रहा
एक मुसाफिर की तरह
कभी भी मैं इस निःशब्दता को टूटने नहीं दिया।

        रजत सान्याल
         बिहार

No comments:

Post a Comment