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सूनापन samapan

सूनापन
कंक्रीट की सड़कें बेताब है
ना पदचापों की आहट
ना धुंए की गरमाहट
मातम सा बना रही हो जैसे
खुदकी मौनता से
चर मर की आवाज से परे
खुली है, पर फिर भी बन्द है
सांसे थमी हो जैसे आवागमन में........!
ये बहुमंजिला इमारतें
बतियाती है दीवारों से
पूछती रहती है दीमकों का पता
अजीब सी घुटन लिए
ढूंढ़ती है मकड़ियों को
बन्द किए हुए खुदको
एसी से लदी हुई खिड़कियों में........!
स्कूल और कॉलेज की बसें भी
खड़ी है डटकर एक जगह
खाली सीटों पर फिर से आवाज सुनने को
बजाती है हॉर्न रोज 
इंतजार की घड़ियां बिताने को
स्पर्श को करती है महसूस
और वार्तालाप भी 
तकती है राहें प्रतिदिन
निहारती है पथ, रोज गलियों में.......!
बाजार ने जैसे जीना छोड़ दिया हो
किसी विरह में,या शोक में
ना मिलन होता है
ना फुसफुसाहट कहीं
बस मुंह बांधे निकल जाते है सब
जैसे  कर दिए हो घोर पाप कई
सन्नाटा तो ऐसे पसरा है
जैसी बरसों पुराने जीवन के अवशेष हो
फिर कभी खुदाई में मिलेगी 
मुस्कान  दबी हुई  फिर इन दुकानों में.....!

अंजू अग्रवाल
शिक्षिका और कवयित्री ( खेरली,अलवर)

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