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कविता औरत के अंदर kavita aourat ke andar

औरत के अंदर


हर औरत के अंदर
एक जंगल होता है
जिसमें
वो कई चीज़ें भुला देती हैं
या
हम उस जंगल में घुसते ही
कई चीज़ें भूल जाते हैं

उस जंगल के रास्ते
उसके लिए बड़े सीधे हैं
जिस पर  चलकर  वो
अपनी परेशानियाँ
यूँ छिपा देती हैं
जैसे
कोई गिलहरी
मिट्टी में अखरोट रखकर
भूल जाती है

अपने सपनों को
जिन्हें कभी पंख लगे थे
गृहस्थी में फँस कर
दरबे की मुर्गी जैसी
उड़ना भूल जाती है

अपने अस्तित्व को
जो शादी,बच्चे होने से
पहले तक
बहुत जीवित था
चहारदीवारी की खूँटी
में बँधकर
खुद से ही मिलना तक
भूल जाती है

उसी सीधे रास्तों पे
जब हमारे मर्दों के पाँव
चलते हैं
तो बड़ी उबाड़-खाबड़
और कष्टकारी प्रतीत होती है
चलने के क्रम में
पीड़ाओं का सामना करते हुए
हम कई चीज़ें भूलने लगते हैं

हमारी खुशी
जो कभी उनकी
भी खुशी थी
उसपर एकाधिकार,
कब्ज़ा हो जाता है
आदमी बस मर्द
बन जाता है
पति,सहगामी और दोस्त होना
सब भूल जाता है

जो मेहंदी,बिंदी,टिकुली
चूड़ी ,सिंदूर,काजल,लाली
जेवर,श्रृंगार शोभा देते थे
पति के मन को हर लेते थे
दुनियादारी की नफासत में
पत्नी को भी भूल जाता है

रश्म, रिवाज़,धर्म,संस्कार
संस्कृति की आड़ में
अपमान से तपा-तपा के
ग्लानि से गला-गला के
वस्तु बनाके बाज़ारू कर देता है
बस
औरत को औरत रहने दिया जाए
हर बार
यही भूल जाता है।

सलिल सरोज

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