शीर्षक – ‘सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑'
[मातृ दिवस पर माॅ॑ को समर्पित]
जब जिस क्षण मैं हारी
सिर्फ तुम्हें पुकारी ‘माॅ॑' ।
न कोई आवाज सुनी
न कोई आहट अाई
फिर कमजोर पड़ी
और
सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑'
जब जिस क्षण मैं हारी ।
सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑।।
मेरी दृष्टि तुम्हें खोजती
पता नहीं कब, किस रूप में
किस रंग में,
किस ज्योति में,
किस जगह मिलने आ जाओंगी
धूल हो या फूल हो
बादलों की गड़गड़ाहट हो
बिजली के चमक पर
अमावस्या की काली रातों में
सिर्फ तुम्हें पुकारती हूॅ॑ माॅ॑'
जब जिस क्षण मैं हारी ।
सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑' ।।
लोगों की बातों में,
तानों में,
हर दिन के, हर पग पर
धार सी, तलवार की
सूई के, नोंक सी
पशुता की दृष्टि में
देखी!
सुनी!
बोली,समझी जाती हूॅ॑ माॅ॑
सिर्फ तुम्हें पुकारती हूॅ॑ माॅ॑'
जब जिस क्षण मैं हारी ।
सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑'।।
आज न सहारा हैं कोई
न कन्धा हैं कोई
न आंचल किसी का
न ममता की, छाया हैं तेरी
मैं लावारिस लाश सी, भटक रही हूॅ॑ माॅ॑
उसमें भी साये सा एक डर
हर क्षण डसता हैं माॅ॑
काश!
तुम होती
तो न डरती किसी से
और तब भी खुले आसमां में उड़
सिर्फ तुम्हें पुकारती माॅ॑
जब जिस क्षण मैं हारी ।
सिर्फ तुम्हें पुकारी माॅ॑' ।।"
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश
No comments:
Post a Comment