भक्ति
भक्ति शब्द का निर्माण ‘भज्’ धातु में ‘क्विन्’ प्रत्यय लगाने से हुई है जिसका अर्थ होता है- ‘ईश्वर के प्रति सेवा भाव।’
शाण्डिल्य भक्ति-सूत्र में भी यही बात दुहराई गयी है कि ‘सापरानुरक्तिरीश्वरे’ अर्थात ‘ईश्वर में पर अनुरक्ति ही भक्ति है।’
नारद भक्ति-सूत्र के अनुसार - ‘भक्ति ईश्वर के प्रति परम-प्रेमरूपा और अमृत स्वरूप है।’
सूरदास के गुरु वल्लभाचार्य ने भी भक्ति के विषय में अपना प्रकट किया है कि ‘ईश्वर में सुदृढ़ और सनत स्नेह ही भक्ति है।’
भक्ति का स्वरूप/bhakti ka swrup
भागवत में भक्ति के तीन रूप बताएं गए हैं – (1) विशुद्ध भक्ति, (2) नवधा भक्ति और (3) प्रेमा भक्ति। भागवत में भक्ति के साधन और साध्य, दोनों पक्षों का विवेचन हुआ है। एकाग्रचित हो भगवान का नित्य-निरंतर श्रवण, कीर्तन तथा आराधना भक्ति का साधन पक्ष है और पुरानुरक्ति उसका साक्ष्य पक्ष है। साधन-रूपा भक्ति को नवधा भक्ति, वैधी भक्ति तथा मर्यादा भक्ति भी कहा गया है। इसी प्रकार साक्ष्य-रूपा भक्ति को प्रेमा
‘नारदभक्तिसूत्र’ भक्ति का प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें प्रेमाभक्ति का विशद विवेचन करने के उपरांत उसकी ग्यारह आसक्तियों का उल्लेख किया गया है – (1) गुण महात्म्यासक्ति, (2) रूपा सक्ति, (3) पूजा सक्ति, (4) स्मरण सक्ति, (5) दास्यासक्ति, (6) संख्या सक्ति, (7) कांता सक्ति, (8) वात्सल्यासक्ति, (9) आत्म-निवेदन सक्ति, (10) तन्मयासक्ति और (11) परम-विरही सक्ति।
भक्ति, रागानुगा एवं रागात्मिका भक्ति की संज्ञा दी गयी है।
‘भागवत’ में भक्ति के चार प्रकार बताएं गए हैं – (1) सात्विक भक्ति, (2) राजसी भक्ति, (3) तामसी और (4) निर्गुण भक्ति।
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