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न देखो ताज को तुम


ग़ज़ल

न देखो ताज को तुम दिल्लगी से
मोहब्बत की है तुमने गर किसी से

हुआ अनजाने में इक क़त्ल जिससे
छुपाये फिर रहा था मुँह सभी से

जो इसमें अक्स देखेंगे ख़ुदा का
ख़ुदा उनको मिलेगा शायरी से

कहीं टिकने नहीं देता मुझे ये
बहुत उकता गया हूँ अपने जी से

लड़ा के मज़हबों को क्या मिलेगा
कहाँ बुझती बताओ आग घी से


          बलजीत सिंह बेनाम
          103/19 पुरानी कचहरी कॉलोनी
           हाँसी 125033

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