गुरु और भारतीय वाङ् मय
भारतीय वाङ् मय मे गुरु का स्थान बहुत ही ऊंचा है। गुरु और परमात्मा को अभेद मानकर निरुपण किया गया है। गुरु ज्ञान का प्रदाता तथा अज्ञान हर्ता के रूप मे शास्त्रों में वर्णित है। सर्व प्रथम गुरु शब्द की व्यूत्पत्ति पर दृष्टि पात करते है - गुरु शब्द में "गु" का अर्थ अन्धकार है तथा "रु"का अर्थ है प्रकाश अर्थात् "अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक" । मनुस्मृतिकार ने गुरु की महत्ता बताते हुए कहा है कि -
निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधिः ।
सम्भावयति चान्नेन से विप्रो गुरुर्च्यते।।
इतना ही नही आगे कहते हैं कि - "गुरु शुत्रूयात्येवं ब्राह्मलोकं समश्नुते ।"
युत्किकल्पतरु मे कहा गया है कि -
गुरुर्ग्निद्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणों गुरुः।
पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम् सर्बेषामतिथिर्गुरुः।।
सामान्यतः द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है।
" गृ"शब्दे धातु से गुरु शब्द बना है। अद्वयतारकोपनिषद् मे कहा है - "गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यादुशब्दास्तन्निरोधकः।"
निरुक्तकार ने कहा है - "यो धर्मान् शब्दान् गृनात्युपदिशति से गुरुः।"
"गारयति ज्ञान इति गुरुः" अर्थात् गुरु उसे कहते है जो ज्ञान का घूंट पिलाये।"
कठोपनिषद् मे कहा गया है -
श्रृव्रणायणि बहुर्भियो न लभ्यः श्रृवन्तोऽपि बहवो यां न विधुः।
आश्चर्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।
गुरु की महत्व को बतलाते हुए सन्त सिरोमणि कबीर दास जी ने कहा है -
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपणैं गोविंद दियो बताय।।11।।
गुरु गोविंद तो एक है दूंजा यांदू आकार।
आप मेट जीवति मरै तो पावै करतार।। 2।।
कबीर गुरु को ज्ञानवान होना बहुत आवश्यक माना है -
जाका गुरु है अन्धकार चेला खरा निरन्ध।
अन्धहिं अन्धा ठेलिया दोनहुं कूप पड़ंत।।
गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते महात्मा तुलसी दास जी कहते हैं - "वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणम् ।" और भी कहा है -
वन्दौ गुरुपद पदुम परागा।
सुरुचि सुबाष सरस अनुरागा।।
उघरहिं विमल विलोचन हिय के।
मिटहिं दोष दुख भय रजनी के।।
अन्त मे यहाँ तक कह दिया -
गुरु बिनु भव निधि तरै न कोई।
जौ विरंचि शंकर सम होई।।
जायसी ने कहा है कि-" गुरु सुआ होइ पंथ देखावा। "
मीरा ने भी कहा है कि -
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे धुर से कमल खिली
संत गुरु सीख दियो जब अपने ज्योति मे ज्योति रली।।
इस प्रकार भारतीय वाङ् मय मे गुरु की महिमा का वर्णन मिलता है। तंत्र समाज मे प्रत्येक तथागत का गुरु ब्रजाचार्य बताया गया है जिसका वे स्वतः पूजा करते हैं। इसी सिद्धान्त के अनुसार सिद्धों ने गुरु के महिमा का गान किया है। नाथों का गुरु योग साधना का ज्ञाता होता है। गुरु को संतो ने अहेरी, सूरमा, पारख, गारुडी, भेदी, खेवक, ज्ञान प्रकाश और शतरंज का चाल बताने वाला कहा है। वेदो मे गुरु को "तत्वमसि" कहा गया है। गुरु की महिमा बताना मेरे लिए छोटी मुंह बड़ी बात की उक्ति चरितार्थ होगी। मै अपने मंद बुद्धि से गुरु चरणों का ध्यान अवश्य ही किया और अंत में -
गुरुर्ब्रह्मा गुरुः विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
"हरिः ॐ तत्सत्"
स्व लिखित ।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)


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