एक वंचित सा ठहरा यहां हूं
वक्त था मेरा कभी तब,
शहर बीच में रहता था,
ताजी रोटी खाता था,
आधी रात को भी चाय पीता था,
मुस्कुराने की बातें भी थी मुझ में,
मैं बात-बात पर हंसता था।
कभी इस टोली कभी उस टोली,
वार्ता लंबी-लंबी करता था।
सपनों के उफान पर मैं,
सतह से ऊपर तैरता था।
मुस्कुराने की बात नहीं थी,
मुझे आना जाना पड़ता था।
कुछ कागजी टुकड़ों को मैं,
प्रमाण पत्र ही कहता था।
उन्हें मैं देख देख के रखता था,
कल के वास्ते उनको संरक्षित करता था।
वक्त भी बदला समय भी बदला,
प्रमाण पत्र का उद्देश्य भी बदला।
बदल गया समय का रास्ता,
ठोकर खाकर मेरा वह परिवेश भी बदला।
वक्त की आंधी आई ऐसी,
कि मेरे रहने का घर भी बदला।
बचा नहीं कुछ सर के ऊपर,
एक अदनी सी पॉलिथीन के सिवा।
और बहुत कुछ बदल गया वहां,
जो ना मैं कुछ कभी सोच सका,
कर न सका मैं मजदूरी भी,
बदलाव का प्रवाह था ऐसा,
कि अपने गांव भी मैं जा न सका।
वहीं ठहरा हूं मैं तब से,
रह गया मैं एक वंचित सा।।
रचनाकार*
*आर्य सुधीर कुमार*
*राष्ट्रीय युवा स्वयंसेवक*
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