उर्मिला का त्याग
पतिव्रता थी वो धर्म-निष्ठा
जनकराज की जाई थी,
बरस चौदह पति-वियोग में
जानें रातें कैसे बिताई थी।
छाती बज्र की कर ली उसने
विदा प्रियतम को किया था,
रोक लिए थे अश्रु भी उसने
वचन लखन ने जो लिया था।
अमावस की काली रैना सी
देखी थी उसने विरहा की रातें,
हमदर्द उसका न कोई था,वो
तन्हाइयों संग करती थी बातें।
शक्ति लगी जब सौमित्रे के
इंद्रजीत ने बाण मारा था,
छू न सका कोई प्राण लखन के
काल को भी इसने ललकारा था।
बरस चौदह जिसने सहे विरह में
उसको मिला न नाम उल्लखों में,
जनकसुता उर्मिला का त्याग दब
गया रामायण के किन लेखों में।
चेतन मीणा
माधोपुर, राजस्थान
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