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एकांकी के तत्व ekanki kise kahte h?

 

एकांकी/Ekanki 

आज हम एकांकी के बारे में जानेंगे| ekanki kise kahte h? एस लेख में एकांकी क्या है? एकांकी किसे कहते हैं? एकांकी का अर्थ क्या है? ekanki/ एकांकी के तत्व कितने होते है? ekanki kise kahte ha? एकांकी के प्रकार कितने है? एकांकी की कथावस्तु, ekanki ki kathavastu/ एकांकी का कथानक,एकांकी चरित्र चित्रण, ekanki ki bhasha/एकांकी देशकाल, Ekanki ka arth/ एकांकी अभिनय, एकांकी की भाषा शैली,एकांकी का उद्देश्य क्या होता है? आदि के बारे जानेगे| 

एकांकी का अर्थ/ Ekanki ka arth 

एकांकी का अर्थ है एक अंक वाला नाटक होता है| अर्थात जिस एकांकी में सिर्फ एक अंक और एक ही कथा कही जाती है उसे एकांकी कहते हैं
 

एकांकी के तत्त्व

नाटक और कहानी की तरह एकांकी में की तत्व होते है| इन्हीं तत्वों से मिलकर एकांकी की रचना होती है| एकांकी के तत्व निचे लिखे है|

एकांकी के तत्व –

1) कथावस्तु,  
2) चरित्र-चित्रण,    
3)  संवाद,
4)  अभिनेयता,    
5)  देशकाल या वातावरण,    
6)   भाषा-शैली,    
7)  उद्देश्य।

एकांकी की कथावस्तु

            एकांकी का आकार लघु होने के कारण इसमें एक ही कथा होती है| एकांकी आदि से अंत तक आकर्षक और रोचक होती है। एकांकी की कथावस्तु में  कौतूहल, उत्सुकता आदि का होना भी आवश्यक है। जहाँ कौतूहल अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाए,  वहीं पर एकांकी को समाप्त हो जाता है।
            एकांकीकार लोक-कथाओं, सामाजिक समस्याओं, मानवीय भावों, जीवन के चित्रों, पौराणिक गाथाओं, इतिहास, राजनीति, जीवन चरित्र सबसे केन्द्रीय विचार लेकर अपनी कथावस्तु का निर्माण कर सकता है। उसे कथा को ऐसे ढ़ांचे में डालना पड़ता है कि नाटकीय उद्देश्य की पूर्ति हो सके। इसके लिए कथा को काटना-छांटना पड़ता है।  एकांकी की कथावस्तु में तीन आवश्यक तत्त्व एकता, एकाग्रता और विस्मय होते है|
  
 
            एकांकी में वस्तु का रूप हमारे सामने तब आता है जब आधी से अधिक घटना बीत चुकी होती है। सफल एकांकी का प्रारंभिक वाक्य ही ऐसा होता है जिससे पाठक के मन में कौतूहल और जिज्ञासा उत्पन्न होती है। बीती हुई घटनाओं की व्यंजना कर नाटककार तुरंत वस्तु को क्षिप्र गति से नाटकीय स्थिति की ओर ले चलता है। पात्रों का परिचय प्रथम तो दिया ही नहीं जाता, आगे चलकर वे स्वयं स्पष्ट हो जाते हैं, यदि पात्रों का परिचय दिया भी जाए, तो वह शीघ्र ही समाप्त कर देना चाहिए, जिससे वस्तु दृष्टिगोचर होने लगे। सारांश यह है कि एकांकी का आरम्भ रोचक होना चाहिए।   
              
            डॉ. वर्मा का मत है कि एकांकी की समाप्ति चरमसीमा की परिणति के साथ हो जानी चाहिए, जबकि डॉ. नगेन्द्र का मत है कि बिना चरम सीमा वाले एकांकी भी सफल हो सकते हैं, जैसे सेठ गोविन्ददास कृत ‘स्पर्द्धा’।
             एकांकी की सफल समाप्ति पर या तो किसी रहस्य का उद्घाटन होकर समस्त कथा का रंग ही दूसरा हो जाता है अथवा उसमें घटना के फल का संकेत होता है और नाटककार को कुछ कहना शेष नहीं रहता।
 

एकांकी चरित्र-चित्रण

          एकांकी में कहानी की तरह पात्रों की संख्या कम होती है। वे वास्तविक जगत के प्राणी,  हमारी तरह हाड-माँस के पुतले, गुण-दोषों और जीवन की सामान्य समस्याओं से आक्रांत प्राणी होते हैं। नायक के चरित्र-चित्रण पर ही लेखक का ध्यान केन्द्रित रहता है, गौण पात्र प्रधान पात्र के चरित्र, परिस्थिति अथवा वातावरण को स्पष्ट करने में माध्यम का कार्य करते हैं। एकांकी की सफलता का एक लक्षण यह भी है कि उसके पात्र व्यक्ति-प्रधान हों, वे लेखक के हाथ की कठपुतली मात्र न रह जाएं।
 
            एकांकी की दृष्टि से वे पात्र सर्वाधिक सशक्त माने जाते हैं जो अपने बाह्य कार्य व्यापारों के साथ ही चारित्रिक दृष्टि से अंतर्मुखी होते हैं। इसका कारण यह है कि ऐसे पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से एक ओर नाटकीय परिस्थितियाँ जन्म लेती हैं और दूसरी ओर इनकी आन्तरिकता बाह्य परिस्थितियों से संघर्ष के कारण एकांकी में उचित घात-प्रतिघात और क्रिया-प्रतिक्रिया को जन्म देती है। एकांकी में पात्रों के विस्तार की संभावना अत्यंत ही कम रहती है। यहाँ पात्र कुछ देर ठहरते हैं, इसलिए उनकी प्रत्येक गति, प्रत्येक शब्द उनकी चारित्रिक विशिष्टता को प्रकट करनेवाला होना चाहिए।
 

 एकांकी - देशकाल-वातावरण

  नाटक की तरह ही एकांकी में भी देशकाल का अत्यंत महत्व होता है। कथावस्तु जिस युग अथवा काल से सम्बंधित होता है उसी के अनुरूप वातावरण का निर्माण करने के लिए भाषा, पहनावा, स्थापत्यकला, मूर्तिकला और संगीतकला आदि का चयन किया जाता है। एकांकीकार साज-सज्जा, घटना का समय, स्थान आदि की सूचना से देशकाल की सृष्टि करता है।
 
            संकलनत्रय का भी देशकाल और वातावरण में बहुत योगदान रहता है। संकलान्त्रय से अभिप्राय है – देश, काल और कार्य-व्यापार की अन्विति। देश के संकलन से तात्पर्य है सम्पूर्ण घटना एक ही स्थान पर घटित हो तथा उसमें दृश्य परिवर्तन, विशेष रूप से स्थान परिवर्तन कम से कम हों। काल की अन्विति से तात्पर्य है कि एकांकी में उतने ही समय की घटना दिखाई जानी चाहिए, जितने समय में वह वास्तविक जीवन में घट सके। ऐसी दो घटनाओं को एकांकी का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए जिनके मध्य वर्षों का अंतराल हो। कार्य-व्यापार की अन्विति से तात्पर्य है कि एकांकी में प्रासंगिक कथाओं को स्थान न दिया जाए तथा कार्य व्यापार की क्रमिकता बनी रहे।
 डॉ. रामकुमार वर्मा संकलनत्रय को एकांकी की आत्मा मानते हैं और उसके अभाव में श्रेष्ठ एकांकी की रचना संभव नहीं मानते।   
 

एकांकी - कथोपकथन अथवा संवाद

नाटक की भांति ही एकांकी में भी संवादों की भूमिका अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। संवाद जहाँ एक ओर कथानक को आगे बढ़ाता है वहीं दूसरी ओर पात्रों के चारित्रिक गुण-दोषों, आचार-व्यवहार,  मनोभावों,  सामाजिक स्थिति,  वातावरण पर भी प्रकाश डालने का कार्य करता है। संवाद योजना पात्र एवं परिस्थिति के अनुरूप होने चाहिए। स्वाभाविकता एवं सजीवता उसका अपरिहार्य गुण माना जाता है। वे संक्षिप्त, मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण भी होने चाहिए। संक्षिप्तता के साथ ही सांकेतिकता भी एकांकी के संवादों की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है।
           एकांकी में संवाद भी छोटे-छोटे होने चाहिए। संवाद को दीर्घता से बचाना भी आवश्यक है। एकांकी का कथोपकथन संक्षिप्त,  स्वाभाविक,  भावाभिव्यन्जक एवं प्रभावशाली हों।
 

एकांकी - अभिनेयता

       एकांकी नाटक की तरह ही दृश्य-काव्य है, इसलिए उसकी सफलता उसकी अभिनेयता पर निर्भर करती है। एक एकांकीकार एकांकी लिखते समय मंच की सुविधाओं और आवश्यकताओं का भी ध्यान रखे। कार्य, गति, संवाद आदि सब कुछ संतुलित हो, किसी की भी अधिकता न हो। अभिनयशील संवादों के साथ उपयुक्त गति ही एकांकी को सफल बनाती है। एकांकी की अभिनेयता का ध्यान रखकर ही एकांकीकार रंग-निर्देश द्वारा पात्रों की रूप-कल्पना और रंगमंच की सम्पूर्ण व्यवस्था को समझाने का कार्य करता है। इन रंग-संकेतों से ही कभी-कभी एकांकी की शुरुआत भी हो जाती है, इन्हीं के द्वारा वह समस्या, पूर्वस्थिति, पूर्वघटनाओं आदि का संकेत दे देता है। अभिनेयता एकांकी का अनिवार्य गुण है और इसके लिए लेखक रंग-संकेत, प्रकाश-छाया के उपयुक्त प्रयोग संबंधी जानकारी भी देता चलता है। कुल मिलाकर एकांकी लेखक को रंगमंच के अनुकूल ही घटनाओं का निर्माण करना चाहिए ताकि उसमें अभिनेयता के गुण मौजूद हों। इसके लिए स्थितियों और क्रियाओं की कल्पना में अभिनेयता का ध्यान रखना आवश्यक होता है तथा अतिमानवीय दृश्यों से दूर रहना पड़ता है। 

एकांकी की भाषा-शैली/Ekanki ki bhasha shaili


            नाटक और एकांकी की भाषा-शैली नाटकीय तनाव से युक्त होती है। एकांकी की भाषा नाटक की तुलना में अधिक तीखी एवं  व्यंग्यात्मक होती है। इसके साथ ही यहाँ भाषा कहानी अथवा उपन्यास के बनिस्पत कहीं अधिक सरल और स्पष्ट होती है। यह पात्रों की शिक्षा, परिस्थिति, वातावरण आदि से भी निर्धारित होती है। सभी पात्रों की भाषा एक-सी नहीं होती है, कह सकते हैं कि भाषा का पात्रानुकूल होना आवश्यक है। यही नहीं कथानक के हिसाब से भी भाषा की योजना करनी होती है। पौराणिक-ऐतिहासिक कथानक से युक्त एकांकी की भाषा समकालीन समस्याओं पर आधारित एकांकी से भिन्न होगी। संवादों की भाषा जितनी चुस्त, चुटीले एवं संक्षिप्त होंगे एकांकी उतनी ही सफल होगी। एकांकी में स्वगत कथन से भी यथासंभव बचना चाहिए
 

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