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उषा कविता की सप्रसंग व्याख्या/ शमशेर बहादुर सिंह/ usha kavita ki vyakshya

 

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कविता - उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।
और...
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।
                  (कविता-संग्रह, "टूटी हुई बिखरी हुई" से)
                     कवि -  शमशेर बहादुर सिंह
 
 

उषा कविता की व्याख्या

उषा कविता का शब्दार्थ

शब्दार्थ :-  नभ - असमान, भोर- सुबह/ प्रभात, चौका-रसोई बनाने का स्थान (चूल्हा),  सिल –मसाला पीसने के लिए बनाया गया पत्थर का शीलवट,  केसर- विशेष फूल,  मल दी- लगा दिया,   जल - पानी,  गौर - गोरा, झिलमिल- मचलती हुई,  देह शरीर, जादू- आकर्षण,सौंदर्य,  उषा- प्रात:काल,  सूर्योदय- सूर्य का उदय होना|

 

उषा कविता की व्याख्या

सन्दर्भ :- प्रस्तुत कविता शमशेर बहादुर सिंह ने लिया है, जिसका शीर्षक ‘उषा’ है| इस kavita में कवि ने आकाश के माध्यम से विभिन्न रूपों का वर्णन किया है| गाँव में सुबह कैसे होता है, सुबह के मनोहर वातावरण का वर्णन कवि शमशेर बहादुर सिंह ने इस kavita में क्या है|

usha kavita ki vyakshya


 
प्रसंग :- प्रस्तुत कविता ‘उषा’ में कवि शमशेर बहादुर सिंह ने सूर्योदय से ठीक पहले के पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति का वर्णन किया है। कवि इसमें प्रकृति की गति को धरती के हलचल भरे जीवन से तुलना कर रहा है। कवि शमशेर बहादुर सिंह ने सूर्योदय के साथ एक जीवंत परिवेश का वर्णन किया है| कवि शमशेर ने आकाश के साथ तुलना कर सुबह का बड़ा ही सुन्दर ढंग से कविता में वर्णन किया है| वह कहते है कि -वहाँ सिल है, राख से लीपा हुआ चौका है और स्लेट की कालिमा पर चाक से रंग मलते अदृश्य बच्चों के नन्हे हाथ हैं। कवि ने इस kavita में नए- बिंब- प्रतिबिंब, नए उपमान और नए प्रतीकों का प्रयोग किया है।

उषा कविता की व्याख्या

अर्थ कवि उषा काल की सौन्दर्यमयी स्थिति का चित्रण करते हुए कहता है कि उषाकाल से पुर्व नभ, निले रंग से युक्त था और वह शंख के आकार सा लगता है। उसके बाद उसने फिर रंग बदला और वह राख से लीपा हुआ गीला चौका लगने लगा। फिर उसके बाद आकाश ने फिर रंग बदला और उसका रंग काला हो गया।उस पर हल्की सी लालिमा उभर आयी, वह ऐसा दृश्य उपस्थित करने लगा मानो कोई काली सिल पर लाल केसर से धुली हो।
 

कवि आकाश के बदलते दृश्य का दूसरा बिम्ब उतारते हुए कहता है कि जैसे किसी ने स्लेट पर लाल रंग की खड़िया चाक मल दी हो। आकाश फिर से रंग बदलता है और उसकी लालिमा धूमिल पड़ जाती है और आकाश निर्मल जल के समान दमक उठता है, उसमें उषा की गौरवर्णी देह झिलमिलाती ऐसी प्रतीत हो रही है, मानो कोई गौरवर्णा रूपसी जल में
लहरा रही हो। उसके बाद उस सारे विलक्षण सौन्दर्य का जादू टूट जाता है और उषा का प्रभाव भी फीका पड़ जाता है, क्योंकि अब सूर्योदय हो रहा है, अतः उषा का प्रभाव समाप्त हो जाता है।

उषा कविता विशेष 

1)  कवि ने प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया है।
2)  "शंख जैसे" में उपमा अलंकार है।
3)  "नील जल हिल रही हो" में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
4)  सम्पूर्ण कविता में में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
5)  ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण है।
6)  kavita में नए-नए बिम्बों और उपमानों का प्रयोग है।
7)  मुक्तक छंद का प्रयोग है।
8)  सरल, सहज खड़ी बोली में सुंदर अभिव्यक्ति है।
9)  माधुर्य गुण का प्रयोग है।
10) kavita में प्रकृति का मानवीकरण के रूप में वर्णन हुआ है|
 
 

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