कबीरदास / Kabirdas
कबीरदास और उनके जन्म की कथा/Kabirdas ke janam ki katha
कबीरदास के जन्म की कहानी बड़ी ही चमत्कारपूर्ण एव रहस्यमयी है। कबीरदास जी के जन्म के बारे में कई विद्वान का अलग-अलग मत देते हैं, लेकिन कबीरदास के जन्म के बारे में कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य मौजूद नहीं है। ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि, कबीर दास जी का जन्म 14वी शताब्दी के अंत (सन 1398) में वाराणासी, उत्तरप्रदेश में हुआ था।
जन्म से जुड़ी रहस्यमयी कहानी /kabirdas ki rahasyamay kahani
एक समय की बात है की एक मुस्लिम परिवार नीरू और नीमा जिसका कोई संतान नहीं था। सन्तान प्राप्ति के लिए दोनों रोजाना अल्लाह/भगवान से संतान की प्रार्थना करते थे। एक भगवान ने दोनों की प्राथना सुन ली। एक दिन में नीरू और नीमा कहीं जा रहे थे तो रास्ते मे एक बच्चे की रोने की आवाज सुनाई दी। दोनो वहां पहुचे तो देखा तालाब किनारे एक बच्चा है। वे दोनों बच्चे के पास गए तो बच्चा हंसने लगा और हाथ पैर झटपट आने लगा। मानो जैसे कह रहा हो मुझे अपनी शरण में ले लो। नीरू और नीमा जिनका कोई संतान नही था। उन्होंने उस बच्चे को अपना लिया और उसे तालाब से उठाकर घर ले आए। नीरू नीमा ने सोच की यह भगवान / अल्लाह का दिया हुआ वरदान है। उनकी रोजाना की भक्ति सफल हुई और ईश्वर ने ये बच्चा उनको खुश होकर दिया है। वह उस बच्चे का अच्छी तरफ से लालन पालन करते हैं।
अतः इस तरह एक मुस्लिम परिवार ने कबीरदास जी का पालन पोषण किया। नीरू और नीमा ने अपना पैतृक पेशा सूत काटना और कपड़े बनाना कबीरदास को सिखाया। कबीरदास जी बचपन से ही अध्यात्मिक होते हैं. स्वामी रामानंद जी को उन्होंने अपना अध्यात्मिक गुरु बनाया था. बचपन से ही उनके मन में ईश्वर को जानने की प्रबल इच्छा होती है।
कबीरदास के वास्तविक जन्म की कहानी / Kabirdas ka janam
कबीरदास के जन्म से सम्बंधित एक अन्य कहानी भी है। कहा जाता है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने एक बच्चे को जन्म दिया और लोक - लाज के भय से उस बच्चे को तालाब किनारे फेक दिया। जिससे उसके चरित्र पर कोई आँच ना आये। उसी समय एक मुस्लिम परिवार वहाँ से जा रहा था। उस मुस्लिम परिवार ने बच्चे की रोने की आवाज सुनी और वहां गए। उस बच्चे को रोता देख गोद मे उठा लिया। उस दम्पत्ति की अपनी कोई औलाद नहीं थी। इसलिए उस बच्चे को अपने घर ले गये और उसका लालन पालन किया। उस मुस्लिम परिवार का नाम नीरू और नीमा था। इन्होंने ने कबीरदास का पालन - पोषण किया।
कबीरदास की मृत्यु की कथा/kabir ki mrityu ki katha
जितना रहस्यमयी और चमत्कारपूर्ण जन्म की कथा है। ठीक उसी तफह कबीरदास की मृत्यु की कथा भी है। कबीरदास सांसारिक दिखावे और आडम्बर के विरोधी थे और वो किसी भी प्रकार के धार्मिक पूजा पाठ में विश्वास नहीं करते थे। कबीरदास सिंर्फ निर्गुण निराकार परमब्रह्म को मानते थे और उनकी ही पूजा करते थे। कहा जाता है कि काशी / वाराणासी में मरने वालो को स्वर्ग मिलता है और मगहर (उत्तरप्रदेश ) में मरने पर नर्क मिलता है। सदियों पहले भी अंधविश्वास था और आज भी अंधविश्वास लोगो मे भरा पड़ा है। जब यह बात कबीरदास जी ने सुनी तो उन्होंने कहा ये नर्क स्वर्ग कुछ नही होता है।
लोगो का अंधविश्वास दूर करने के लिए कबीरदास ने निश्चय किया की वे अपने जीवन के अंतिम दिन मगहर में बिताएंगे। कबीरदास अपने जीवन के अंतिम दिनों में मगहर में ही रहे और वहीं कबीरदास जी की मृत्यु हो गयी। कबीरदास की मृत्यु के बाद हिंदू संप्रदाय और मुस्लिम संप्रदाय में काफी विवाद हुआ था, क्योंकि दोनों संप्रदाय कबीरदास को अपना मानता था। हिंदू संप्रदाय अपने मुताबिक कबीर दास जी का अंतिम संस्कार करना चाहते थे और मुस्लिम संप्रदाय अपने मुताबिक अंतिम संस्कार करना चाहते थे।
दोनो के धार्मिक विवाह में ऐसा चमत्कार हुआ कि किसी अंतिम संस्कार के लिए कबीरदास जी का शव नसीब ही नहीं हुआ। जब कबीरदास के शव से कफन को हटाया गया तो कबीरदास मृत शरीर की जगह कुछ फूल पड़े मिले हैं। हिंदी मुस्लिम दोनों हैरान रह जाते हैं, यह क्या हुआ? कैसे हुआ? उसके बाद दोनों ही संप्रदाय के लोग फूलों का आधा - आधा हिस्सा करके अपने धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार कर देते हैं।
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