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गाँव शहर की यादें Gaanv or shahar ki yaade

गांव और शहर की यादे

कैसे भूलू में,
बचपन अपना ।
दिल दरिया और ,
समुंदर जैसा था।
जब भी याद आता,
तो दिल खिल उठता ।
और अतीत में,
 मुझे ले जाता ।।

क्या कहूं उस,
स्वर्ण काल को।
जहां सब अपने,
बनकर रहते थे।
दुख मुझे हो तो,
 रोते वो सब थे।
मेरी पीड़ा को,
वो समझते थे।
इस युग को ही,
 स्वर्णयुग कह सकते है ।।

रहना खाना,और पीना।
खुद के माँ बाप को,
 कुछ न था पता।
ये सब तो,
पड़ोसी कर देते थे ।
इतनी आत्मीयता,
 होती थी उन मे ।।

अब जवानी का,
दौर कुछ अलग है ।
शहरों में कहां,
आत्मीयता होती हैं।
सारे के सारे,
लोग स्वार्थी है ।
सिर्फ मतलब के,
लिए मिलते है ।।

पत्थरो के शहर,
में रहते रहते ।
खुद पत्थर दिल,
वो हो गए है।
किस किस को दे,
दोष हम इसका।
एक जैसे सारे,
 हो गए है ।।

ये ही अन्तर है,
गांव और शहर में।
अपने और पराए में ।
वहां सब अपने होते थे।
यहां कोई किसी का नही।।

यहां के सारे रिश्ते झूठे है।
इसलिए अपना बनकर ।
अपनों को ही ठगते है।
और इंसानियत को,
ताक पर रखते है ।
किसी को कुछ भी,
नहीं समझते है।।

संजय जैन (मुम्बई)

03/05/2019

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