मजदूर
क्यों मजे से दूर है मजदूरकिस्मत से मजबूर है मज़दूर...
रोज कमाता रोज खिलाता
अपने परिवार को बहलाता
बच्चे पूछते हर दिन ऐसे ही जिया जाता
फिर क्यों मजदूर दिवस है आता...
मेहनत के बदले ही रोटी खाता
पढ़ाना लिखाना बच्चों को चाहता
वह भी तो एक इंसान हैं
स्वाभिमान से सबके बीच में जीना चाहता.....
नदियों पर यह बांध बनाता
रेल की पटरीया भी बिछाता
कारखाने और महल बनाता
मेहनत से पीछे ना आता....
एक एक ईट सजा कर रखता
पसीने से भीगता जाता
गगनचुंबी भव्य आकार भवन निर्माता
खुद अस्थाई झुग्गी में सोने जाता....
उसकी व्यथा कोई समझ ना पाता
हर दिन मरता हर दिन जी जाता
छोटी खुशियों में खुश हो जाता
फिर भी मेहनत से परिवार चलाता...
दीपमाला पांडेय
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