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मुक्तक


   
   *मुक्तक*


अब अंगारों  में चलने की  आदत डाल लिया।
जब से  गले में इश्क़  की आफ़त डाल लिया।।
दिल के सारे ज़ख़्म घूंघट खोल के निकल पड़े।
जबसे चेहरे में नक़ाब-ए-ख़जालत डाल लिया।।
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मैंने मुस्कुराना छोड़ दिया, उसके हँसी के लिए।
ग़मों से रिश्ता जोड़ लिया, उसके हँसी के लिए।।
उसके हँसी में  एक ग़ैर की  झलक है, फ़िर भी;
अपनों से नाता तोड़ दिया, उसके हँसी के लिए।।
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एक आसूदाह ने जब मेरी क़ीमत पूँछा।
मैंने भी उसकी दौलत की हकीकत पूँछा।।
वो ख़मोंश हो गया, बेजान के माफ़िक;
मैंने जब उससे ये गुश्ताख़ भरी हिमाकत पूँछा।।
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मैं बदल कैसे गया, उसे बड़ा ही  इजाज़ लगा।
मेरा स्वभाव जमाने से बड़ा ही इम्तियाज़ लगा।।
मैंने जब वफ़ा के डगर में सुकूं से चलने लगा;
तो जमाने के सारे तकलीफ़ों को नासाज़ लगा।।
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वो शक्स मुझको लूटने से बाज़ नहीं आया।
मैं भी पागल हूँ, लुटने से बाज़ नहीं आया।।
अमलन वो मुझे कंकाल कर देगा बे - शक़।
"दर्द" बाज़ नहीं आया, वो बाज़ नहीं आया।।

💐✍🏻बीरेन्द्र कुमार शायर "दर्द"
मों  - 8358872705

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