कजरी
छायी सावनी बहार पिया।
पड़त है फुहार पिया नाय।।
गत ग्रीषम वर्षा है आयो
पलक पांवड़े नींद है लायो।
सीरी पवन मही पर छाओ
टूटा पसीना के तार पिया।। पड़त---
दूरी हृदय मिले हैं अंका
नींद लागि पड़े पर्यंका।
लाज शील कै नाहीं शंका
सहात नायीं मदन के मार पिया।। पड़त - - -
धान-पान सब मस्ती मे झूमे
खेते किसान मेड़ी पे घूमें।
बार-बार प्रभु पद के चूमें
राखो प्रभु या करो संहार पिया।। पड़त-
जीव - जन्तु सब भये प्रसन्ना
खेती- बारी उपजिहैं अन्ना।
भीख - भिखारी पइहैं दन्ना
झूमैं धानों की कतार पिया।। पड़त है-----
सिगरी नारी कजरी गावैं
झूला- झूलैं पेंग बढ़ावैं।
भई प्रसन्न नव गीत सुनावैं
खोला नीवी कै नार पिया।। पड़त है -
शीतल पवन सदा सुखदायी
धरती ने सच्चा सुख पायी।
बाल-वृद्ध सब हर्षित भाई
प्रभु सुने रंग के पुकार पिया।। पड़त है - - - - -
स्वरचित मौलिक ।। कविरंग। ।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)


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