रूप माधुर्य
ये मूरत आंखिन मे राखिबे जोग
अंग-अंग झलकत चारु गोराई।
पद्म कै शोभा अब फीका परो
नैनन् मा समाय रह्यो गहराई।।
मदमस्त नयन कियो है बेचैन
रैन मा नींद हमें नहिं आई।
लगाये समय विधि बनाये इसे
पीर है रंग की आज बढ़ाई।।1।।
बाल गिरे मुख ऊपर ब्याल ज्यों
विधु पास घन इव छाय रहे हैं।
धरत नहिं धीर हृदय अब मोर
अंग कै पोर - पोर दुखाय रहें हैं।।
नासा कीर धंसावत धीर है
जन होंठ पे आंखिन गडा़य रहे हैँ।
कवि रंग हुए हैं मानो अधीर
आगे कहत को सकुचाय रहे हैं।। 2।।
ग्रीवा कंबु अधर जनु जम्बु
दसन कपोलन कै गुन गाय रहे हैं।
सारस सरिता वरनत कविता
मूरत मन मा बसाय रहे हैं।।
जेहि गृह मा पड़िहैं तेरो पद-पंकज
मानो कमला को लाय बइठाय रहे हैं।
सौंदर्य असीम को सीमा कहां
वरनत रंग सुख पाय रहे हैं।। 3।।
काजल को आंखिन मा रेख पड़ी
चित्त में चितवन आय धंसी।
मनभावन जोहत मन मधुकर आज
दृग उरझत आय कहां है फंसी।।
उर समझत प्रेम को नेम बड़ो
भुलाये न भुलाय रही वो हँसी।
सरिता तीर बन बाग औ नीर
सारस जोड़ी कहां है ग्रीस।। 4।।
स्वरचित ।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)


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