कौतूहल
बढ़ाकर कौतूहल क्यों हो मौन।
सूखे मरु की सरिता तुम हो कौन।।
उम्र से अभी हैं कच्चे बोल
शब्द अंतर पट को देते खोल।
हृदय स्पन्दित है लोल - कपोल
तुम हो मधु व्यंजन के लौन।। बढ़ाकर - - - -
कहां पायी शब्दों में गाम्भीर्य
उर के गुह्यतम से हैं अवतीर्य।
बढ़ाते मन के बल और वीर्य
मिलन मृदु, दुष्कर तेरा गौन।। बढ़ाकर - - - -
मृदु शब्दों का ही है संयोग
चलता लुक-छिप मिलन-वियोग।
मिलन की आशा ही बड़ा है रोग
अरे पूर्ण को कैसे कह दूँ पौन।। बढ़ाकर - - - -
क्यों छिपाती हो मुझसे राज
होता मन उद्वेलित मेरा आज।
हृदय मे बजता अनहद नाद
क्यूँ बढ़ाती उर में दुविधा दौन।। बढ़ाकर - - - - -
क्यों दुखा देती मेरे उर के तार
देता दुहिता सम तुमको प्यार।
जग से नहीं गया तुम्ही से हार
मृदु तन को झकझोर रहा मधु यौन।। बढ़ाकर - - -
स्वरचित ।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर( उ0प्र0)

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