अज्ञात
मन व्याकुल है अज्ञात
फैला प्रकृति का रहस्य।
जग दिखता पूरा सत्य
समझ मे आती ना है बात।।
जग को कहते लोग असत्य
मनोरम इन्द्रजाल अभिराम।
छटा विखेरे सुबहे- साम
पता ना कैसे होगा गंतव्य।।
भाष्कर भाषित प्राची मे लाल
गूंजता खग कलरव चहुंओर।
मचाये है खूबसूरत शोर
उदय हो रहें हैं रवि बाल।।
मन खिंचा हुआ आकृष्ट
दौड़ जाता है इक ओर।
खिला सुंदर पूरब मे भोर
प्रकृति दिखती कैसी श्लिष्ट।।
इधर तेरा यौवन का उद्गार
सम्मुख है रूप छविधाम।
तनद्युति नयनाभिराम
व्यथित मन जाता है हार।।
उठे गिरि सम उन्नत उरोज
तन लावण्य छिटकाती कांति ।
भला मिल सकती कैसे शांति
मेरा मन रहा उसी को खोज।।
स्वरचित ।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर( उ0प्र0)

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