जग को नमस्कार
मै अपनों से छला
दुनिया से जला
हुआ न भला
व्यर्थ सारी कला
अब गया हार
जग को नमस्कार।।
अपनो ने ही लूटा
सर पे पहाड़ टूटा
ना बंधन है छूटा
गुस्सा सर पे फूटा
हुआ मै दागदार
जग को नमस्कार।।
जाऊं भी कहां
रहने को है यहां
धोखा है जहां
पग-पग इन्तहां
होगा कैसे बेड़ापार
जग को नमस्कार।।
तेरे मेरे का जाल
बड़ा जग जंजाल
इसी मे सब कंगाल
हो रहे है हलाल
धड़का दिल बार-बार
जग को नमस्कार।।
गैरों को कौन मानता
अपनों को ही जानता
ना किसी को पहचानता
खाक जीवन भर छानता
झूठा ही सजा दरबार
जग को नमस्कार।।
बीत रही जवानी
जिसकी अनेकों कहानी
कोई बनी प्रेम दीवानी
बुढ़ापा है पानी - पानी
गल्ती करता लगातार
जग को नमस्कार।।
रंग मे पड़ा भंग
लोग सब हैं दंग
जग में छिड़ा है जंग
छूटा अपनो का संग
मृत्यु किया जार - जार
जग को नमस्कार।।
स्वरचित ।। कविरंग ।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर( उ0प्र0)


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