समाज 'है नारी
नारी पूरी भी है ,अधूरी भी है ,
वो मान भी है ,अपमानित भी है ,
वो वेद भी है ,वो मूर्ख भी है ,
चलती है चारोमुख वो एकहरी भी है ,
थकती भी है दोपहरिया भी ,चाँदनी का आराम भी है,
वो सख्त भी है वो कोमल भी है ,
कल भी है ,वो आज से कल की कीमत भी है,
वो आशिकी भी है ,वो अदावत भी है ,
नारी भी है ,नरसंहार भी है,
आज़ाद करो उसको ,वो जमी भी है,
वो पानी के उफान से निकलता आसमान भी है,
नृत्य में बंद घुंघरू की खनक भी है,
जंजीरो में बंधी तड़प की आवाज़ भी है,
नारी सौदर्य भी है ,वो समाज की कुरूपता का अहसास भी है।
नितिका.
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