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बसन्त kavita basant

बसंत


रुत छाई बहारे बसंत
होने लगा शरद ऋतु का अंत
खेतों में सरसों लहराने लगी
पीले पीले फूलों की चादर पर
रंग बिरंगी तितलियां मंडराने लगी
विभिन्न प्रकार के गुलाबों से महका चमन
प्रेमी जोड़े मना रहे गुलाबे-ए दिन
खुशबू ए गुलाब से हुए मोहब्बत में मगन
झूल रही हवा में पक्की हुई गेहूं की बलियां
संग संग झूमे उसके डेजी के फूलों की
श्वेत गुलाबी कलियां
खिलने को बेकरार, बसंत ने छिड़का
रंग रूप यौवन उन पर बेशुमार
टेसू के रंग बिरंगे फूलों से वातावरण में
मदहोशी जाने लगी
दूर बैठी कोयल पेड़ पर 
मधुर स्वर में गाने लगी
भंवरों ने भी मिलकर मचाई धूम
हर कली फूल पर बैठा गा रहा झूम झूम
महकी महकी सी चल रही हवाएं
मदमस्त कर रही फिजाएं
खींचे अपनी ओर, बंधी हो
बसंत ने जैसे दिलों की डोर
दे रहा हो जैसे कोई दिलों पर दस्तक
रहा हो पुकार
आ जाओ प्रीतम दिल उड़ने को बेक़रार
खेत खलिहान लगने लगे पीले
खिले फूल हरे व नीले 
मेरे सामने की पहाड़ी ने लगा
पहनी हो पीले रंग की साड़ी
सूरज की सतरंगी किरणों ने
दुल्हन को लिया हर
निकले उसके मुख सेशहद से मीठे स्वर
देवताओं को भी बसंत बहुत भाया
सबने मिलकर ढोलक बचाया
बने शिव पार्वती जन्मों के साथी
भूत प्रेत बने शिव के बराती
शिव विवाह हुआ संपन्न
तीन लोक हुआ प्रसन्न
वाह रे बसंत
आयो रे बसंत
सबको भायो रे पसंद
महकायो रे बसंत
वाह रे बसंत_२

कल्पना गुप्ता /रतन
जम्मू कश्मीर

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