रचना...
कैसे कहोगे हम बिन जीया जीवन कैसे।
हाथों ने हाथों की समझी वो छुअन कैसे।
शायर मैं नहीं जो कह दूं ग़ज़ल के अश्आर ;
अपनी कैफियत की मगर कहूं ये उल्झन कैसे।
प्यार बस प्यार सा होता तो क्या ग़म था;
जो बिछड़े उनके मन की कहें जलन कैसे।
बात उल्फत की करते नहीं आशिक सरे-आम;
रूह का ये रिश्ता है न सोचो हो मिलन कैसे।
जहां की खुशियों की खातिर गर तन्हां हम रहे;
क्यों सोचे फिर बीते बेरंग इतने सावन कैसे।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !
लाजवाब
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