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मजदूरीन. Mazdoorin

मजदूरीन"


चिलचिलाती धूप और गर्म हवा
हाथ में पकड़े कुदाल,
मैले आंचल से पोंछती पसीना बार बार,
आंखों में बस विवशता
वो लगी थी खामोश काम पर,
कभी देखती उस केर की ओर
जिसकी सूखी डालियों में छाँव ना थी,
फटे से चिथड़ों में लिपटा उसका लाल
सोया था उसी केर के नीचे कब से,
अचानक बच्चा रोने लगता है 
शायद भूखा प्यासा है,
वो देखने लगी याचनामयी आंखों से
पास खड़े ठेकेदार की ओर,
जैसे कह रही हो
थोड़ा पानी पिला आऊं,
जा कर मेरे लाल का
पसीना पोछ आऊं,
पर हिम्मत ना जुटा सकी
असहाय और लाचार जो थी,
पता है उसे कि गर बैठी
तो मजदूरी नहीं मिलेगी,
दिन तो भूखे गुजरा है 
पर रात कैसे कटेगी, 
फिर.. बच्चे को रोता छोड़ 
निकल गई वो काम की ओर।।

ब्रह्मानंद गर्ग
जैसलमेर(राज.)

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