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एक मजदूर.. ek mazdoor


एक मजदूर.....


कभी सड़क के किनारे,
कभी किसी निर्माणाधीन इमारत,
तो कभी ओवर ब्रिज के नीचे,
मुझे दिख जाया करती थी वह।
इकहरी काया,सांवला रंग
लेकिन ऊंची कद काठी।
ज्यादा उम्र की नहीं जान पड़ती थी,
किन्तु चेहरे पर गंभीर चिंता की रेखाएं।
किसी से कोई ख़ास लेना देना नहीं,
अपनी ही धुन में मगन,
अपने काम में तल्लीन।
यूं जान पड़ता था कि
बड़ी जिम्मेदारी थी उसके कंधों पर
जिसे बड़ी शिद्दत से निभाए जा रही थी,
चुपचाप,निशब्द भाव के साथ।
शायद आस पास के गांव की थी,
ऐसा मेरा अनुमान था।
इसलिए कि एकाध बार देखा था मैंने,
उसे दिहाड़ी मजदूरों के साथ बस से उतरते।
जी हां,
वह भी मजदूर ही थी।


विचित्र सा आकर्षण था उसमें,
कई बार विचार आया कि
पूछूं उसके घर परिवार के बारे में।
किन हालातों के चलते ,
उसे इतनी सी उम्र में घर से निकलना पड़ा?
एक,दो बार आमना सामना भी हुआ,
वह मुझे देखती तो मुस्कुरा देती।
उसकी निश्छल मुस्कान मुझे भीतर तक विचलित कर जाती।
रोज सोचती कि आज पक्का पूछूंगी उससे
उसके जीवन के अनजाने रहस्य को
किन्तु कभी अवसर ही नहीं मिल पाया।
एक दिन उसने कुछ कहना चाहा था मुझसे
लेकिन व्यस्तता के चलते मैं ठहर नहीं सकी।

पिछले कुछ दिनों से वह दिखाई नहीं दी,
कहीं बीमार तो नहीं पड़ गई।
साथ आने वाले दिहाड़ियों से पूछा
तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की।
पता नहीं क्या हुआ होगा?
काश मैंने उससे बात कर ली होती,
उसकी परेशान निगाहें,अनकहे शब्द
आज भी मुझे सोते से जगा देते हैं।


प्रेषक:कल्पना सिंह
पता:आदर्श नगर, बरा,रीवा (मध्यप्रदेश)

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