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Vriksh वृक्ष

वृक्ष


आज एक वृक्ष से मेरी बात हुई
उसने क्या समझदारी की बात कही
खाते हो तुम मुझसे मीठे फल
सबको देता एक बराबर, नहीं करता छल
लेने बैठते हो जब मेरी छांव
बहुत करते हो कांव कांव
हर जगह हो जाता हूं उपलब्ध
चाहे शहर हो या गांव
हर धर्म हर जाति के आते लोग यहां
हर प्रकार की बनाते बिरयानी यहां
सियासत की बिसात भी जाती बिछाई
कहां कैसे किस से आती है काली कमाई
लोग आते हैं चले जाते हैं
मैं तो वृक्ष हूं सुनता हूं सबकी
ना अपनी सुना पाता हूं
सूरज बाबा बादलों की ओढ़ से
जब भी आते हैं बाहर
नहाते हैं मुझे डाल किरणों की चादर
हो जाता हूं जब कभी उदास
बारिश की रिमझिम जगा जाती
फिर से जीने की आस
हरी हरी पत्तियां सब को बुलाएं अपनी ओर
मीठे मीठे फल खाके हो जाते सब विभोर
रात को जब सुस्ता जाता हूं मैं
चांदनी पास आकर, लेकर मुझे आगोश में
सुला जाती मुझे
सपनों की दुनिया में ले जाती मुझे।

कल्पना गुप्ता/ रत्न
 सीनियर लेक्चरर

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