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बूढ़ी माँ कविता

          बूढ़ी माँ

उमीद लिए शाम से ही,
एक द्वार से दूसरे द्वार,
बेबस,लाचार झोली फ़ैलाए,
भटक रही है बूढ़ी माँ।
रो-रो कर गुहार लगाती रही,
कोई मदद करो,
बच्चा उसका मृत्यु की गोद मे है।
सारा शरीर फूल गया है,
सायद ठंड का प्रकोप है,
पड़ा था ऐसे,
जैसे कोई लाश।
ठंड मे रात भर,
जिससे उसे आशा-उम्मीद थी,
दया की भीख माँगती,
बार-बार उनके पास,
चक्कर लगाती,
अपना दुखड़ा सुनाती,
मेरे बच्चे को बचाओ।
यहाँ वहाँ दौरती,
कभी बच्चे के पास बैठती,
इनसे कहो,उनसे कहो
मुखिया जी से कहो।
हर कोई सांत्वना देता,
शायद वो मर जायेगा !
उसके बिरादरी,जाती मदद करे,
घर मे बीमार जवाँ बेटे के सिवा
बहू और साल भर का पोता है।
जाने क्या होगा,अब इनका
सब आपस मे कह रहे।
बुढ़िया फिर आ रही है,
हम कैसे मदद करे,
उसकी जाती के लोग झगड़ा करेंगे।
सुबह का इंतज़ार है लोगो को,
लाश को जलाने का,
बचाने को कोई तैयार नही।
जैसे तैसे भोर मे ही,
गाड़ी का इंतज़ाम किया,
साथ जाने को कोई तैयार नही
पैर परती, हाथ जोड़ती,
आखो से आसूँ बहाती।
गाड़ी भी थककर चली गयी,
दिल बैठ गया माँ का।
आशा-उम्मीद सब टूट गया,
जा बैठी बेटे के पास , बूढ़ी माँ
मृत्यु के इन्तेजार मे।
                  राजू कुमार 'मस्ताना' 

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