।। नारी।।
तरंगों सम मन तरंगित आज।
बहती सरिता स्थित नगराज।।
घरबार छोड़ आयी नदी ओर
जलधार उमड़ता न था ओर-छोर
शुचि दर्पण सा जल रलमल
बहती तटिनी कल-कल-कल
स्वच्छ साफ था वारि अमल
कितने प्रकृति नटी मे छिपे राज।। तरंगों सम - - - - -
कुल-कुल-कुल-कुल करती निनाद
लड़-लड़ धाराओं से होता विवाद
थी उठती जगह - जगह भँवर
दिखता जैसे मुग्धा का नाभि विवर
चलती शाश्वत वह सजी सँवर
उठ रहा नीर मे कहीं गाज।। तरंगों सम - - - - - -
सम्मुख हरित भूमि वन प्रदेश
था चारागाह पशुओं का विशेष
हरित शश्यों से क्षुधा मिटाते थे
सब मृदु जल पीने आते थे
शावकों का भी तृषा घटाते थे
था सुन्दर दिखता मृग समाज।। तरंगों सम - - - - - -
दृश्य मनोरम था रमणीय
शांत कामिनी थी कमनीय
नारी समाज न रही दमनीय
सौन्दर्य सभा यहां आमंत्रित
मानव मन ना रहा नियंत्रित आभूषण अबला का शर्म लाज।। तरंगों सम - - - - - -
कौन काव्य तुझसे रित है
क्यों नारी ही कवियों की कृत है
पुरुषों के मन की वह अमृत है
बनते तुझ पर ही क्यों महाकाव्य
तेरे चरित्र बिना जो नहीं सम्भाव्य
हो सम्पूर्ण धरा की तूँ ही नाज।। तरंगों सम - - - - -
।। कविरंग उर्फ पराशर।।
सद्यः रचित।।
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