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गीत “न जानें क्यों ? Geet na jaane kyo?


  ‘गीत ’

“न जानें क्यों ?
कभी– कभी अपना व्यवहार अपने को  बर्बर सा लगता हैं
रिश्तों का राजमहल सबको खंडहर सा लगता हैं।
मुझको तो अपने से ही अक्सर डर लगता हैं,
अपना मन जब –जब परदेशी सा लगता हैं।

हवाएं जब घर में घुस आए,
तो पूरा घर आसमां सा लगता हैं।
विलुप्त पारियों की बातें सुन– सुनकर
अपना मन भी  फूलों सा खिल उठता हैं   ।

मौसम की मनमानी मधुशाला ,
मुझको पतझड़ सी लगती हैं।
किस्मत की बातें सुन सुन कर,
हाथों की रेखाएं भी आडम्बर सी लगती हैं।

होने न होने की दूरी में,
अपना होना सा लगता हैं।
इन सियासी धर्म संघर्षों के बीच मानों ,
अपना ईश्वर भी रूठा–रूठा सा लगता हैं।।"

रेशमा त्रिपाठी 
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।

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