ग़ज़ल
ऐ ख़ुदा हो क्या गया है, वो ज़मीर बेंच डाला।ये सिला दिया है रांझा ने कि हीर बेंच डाला।।
ये है कर्ज़ बाप होने का, वो इस क़दर चुकाया।।
न कमीं हो कुछ भी बच्चों को, शरीर बेंच डाला।।
मैंने ख़ुद के जाँ का सौदा की है इस तरह से यारों।
कि धनुष लिये रहा हाथ में, तीर बेंच डाला।।
मेरे साथ दॉव खेला है वो आदमी ने ऐसा।
मेरे यार ख़ुद के सांसों की समीर बेंच डाला।।
ऐ! दहर ये पेट पापी ने मुझे ऐसे सताया।
कि मैं मजबूरी के हाथों तक़दीर बेंच डाला।।
(अन्तिम शेर (मक्ता)मेरी सच्चाई है ।)
✒Birendra Kumar Shaayar Premghan "Dard"
No.8358872705(Sidhi M.P.)
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