मै जिस्म की दुकान हूँ
मै जिस्म की दुकान हूँ।
तेरे शांति की मुकाम हूँ।।
दुनिया से थका हारा
जग ने तुझे धिक्कार।
शराबी कहके दुत्कारा
मै ही तेरा प्रिय स्थान हूँ।।
मानवों की मै खास हूँ
देवताओं के भी पास हूँ।
चर-अचर की आस हूँ
तूं समझता मैं नादान हूँ।।
राजाओं - महाराजाओं के सर
झुके हैं मेरे चरणों पर।
निर्बल हुए पड़े मेरे जांघों तर
मै तो उपभोग की सामान हूँ।।
मैं वेश्या अप्सरा गणिका
नगर वधू देवदासी प्रोषित पतिका।
रूपजीवा तेरे तन की लतिका
रौंदते - रौंदते हुई पाषान हूँ।।
कितने मुझको मिटाने चले
स्वयं मिटे सर मेरे पैरों तले।
ख्वाब चूर्ण जो मन मे पले
मैं सौन्दर्य देवी की शान हूँ।।
जग के बड़े-बड़े शूरमा वीर
पड़ते ही सामने हो जाते अधीर।
सारी शक्ति कर देती क्षीण
प्रभु द्वारा समर्पित श्रेष्ठ दान हूँ।।
मैं त्रैलोक पर राज चलाती
आज्ञा विधि हरि हर से मनवाती।
क्रोध में उन्हे पत्थर पाषान बनाती
मै ऋषि-मुनियों की ध्यान हूँ।।
मै शाश्वत निर्झरणी धारा हूँ
अविरल चमकती सितारा हूँ।
जिंदगी से हारे का सहारा हूँ
मै सबके हृदय पर विराजमान हूँ।।
अरे तुच्छ मुझपे क्या लिखेगा तूँ
मेरे क्षणिक आनन्द का प्राकट्य तूँ।
डरते पल-पल विधि, हरि स्वयभूं
मै चर-अचर की अवधान हूँ।।
कविरंग
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)

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