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मजदूर का जीवन. Mazdoor ka jivan

शीर्षक –‘ मजदूर का जीवन '


“ मेहनत की दौड़ लगाते हम हैं
पत्थर को तरासते हम हैं
कुदरत के कहर को झेलते हम हैं
फुटपाथों पर सोते हम हैं
ओस की बूंदों के जैसें
रोज धरा पर गिरते हम हैं
आंखें नीची करके,आंखों में अश्रु को लेके
दहशत में जीवन जीते हम हैं
यौवन के दहसी भेड़ियों में
प्रतिदिन शोषित होते हम हैं 
कभी बेबस,भूखे पेट के खातिर
विधवा सा जीवन जीते हम हैं
इन सारे आपाथापी में
मां की ममता भी बिक जाती 
स्तन का दूध भी सूख जाता हैं
दो जून की रोटी के खातिर
चेहरे की लालिमा बूझ जाती हैं
पता नहीं होता हमको को
परिवार का सुख क्या होता हैं
 एक समानता हैं लेकिन
लिंग भेद नहीं पाया जाता
अल्हड़पन का पता नहीं
पर खुद्दारी में हम  जीते हैं
बारिश का मौसम क्या होता हैं
ठंडी, गर्मी क्या होती हैं
लाज,शर्म कहते किसको हैं
ऊंच–नीच, औ सत्य –असत्य का
भेदभाव का क्या होता हैं
इस सबका एहसास नहीं हमको
फ़र्क नहीं क्या लोग हैं कहते
हर बिपदा में कर्तव्य हैं मेरा
अपने स्वाभिमान का पालन करना
भूखा पेट कितना भी हो
पर ईमान से नहीं डगमगाना हैं
अपने जीवन का मोक्ष यही हैं
मेहनत की रोटी खाना हैं 
हम जिस दिन न होगे
राजा का दरबार न होगा
देश का कोई काम न होगा
ईश्वर का गुणगान न होगा
धरा के जितनी शक्ति ही
हम मजदूरों में पाई जाती
इसलिए हम गाली सुनते
सहते मार भी खाते हैं
कभी– कभी तो मृत शैया पर 
 हम सो भी जाते हैं 
एक मजदूर ही ऐसा हैं
जो अपने बीबी बच्चों संग
देश का बोझा ढोता हैं
गंगा के जैसे पावन हो
हर मजदूर अपना जीवन जीता हैं ।।

रेशमा त्रिपाठी 
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश

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