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वो लड़की उलझे बालों की...

वो लड़की उलझे बालों की...


वो लड़की उलझे बालों की।
सहज व गोरे गालों की।
सड़क किनारे थी दौड़ रही।
गर्दन आगे पीछे थी मोड़ रही।
उम्र न उसकी ज्यादा थी।
आठ वर्ष और आधा थी।
देख के उसके बिखरे बाल।
समझ गया था मैं उसके हाल।
उस पर ना प्रेम का साया था।
उसकी देह ने ये बतलाया था।
तन पर कपड़े भी न पूरे थे।
कुछ सपने तय थे पर अधूरे थे।
भाई जो उसका अपना था।
उसके माँ बाप का सपना था।
भाई को नहला और धुला कर के।
अच्छे से संवार सजा करके।
निजी विद्यालय का गणवेश पहनाकर के।
ख़ूब लाड़ प्यार लड़ाकर के। 
टीका काजल का लगाकर के।
माँ गाड़ी तक छोड़ने आई थी।
थैला भी ख़ुद वो उठा कर लाई थी।
इस सारे घटनाक्रम ने एक बात मुझे समझाई थी।
बेटी अपने ही घर में हर बार क्यूँ इतनी परायी थी? 
हर बार ही माँ की ममता क्यूँ बेटे पर उमड़ी आई थी? 
बेटी कमतर, बेटा ऊपर, क्या यही समाज की चतुराई थी? 
कब बुझी प्यास यह सालों (वर्षों) की... 
वो लड़की उलझे बालों की।
सहज व गोरे गालों की।

कवि
संजय दत्त यादव
शिक्षाविद् अलवर राजस्थान

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